गीतार्थ संग्रह – 6

श्री:
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कर्म, ज्ञान, भक्ति योगों की व्याख्या

श्लोक 23

कर्मयोगस्तपस्तीर्थदानयज्ञादिसेवनम् |
ज्ञानयोगोजितस्वान्तै:परिशुद्धात्मनी स्थिति: ||

yagyam antharyami

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

कर्म योग: – कर्म योग
तपस् तीर्थ दान यज्ञादि सेवनम् – सतत तपस्या, तीर्थ यात्रा, दान, यज्ञ आदि में संलग्न होना
ज्ञान योगो: – ज्ञान योग
जीत स्वान्तै: – उसके द्वारा जिसने स्वयं अपने मानस पर विजय प्राप्त की हो
परिशुद्धात्मनी स्थिति: – आत्मा में पुर्णतः स्थित है जिसका सांसारिक देह से सम्बंध नहीं है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

सतत तपस्या, तीर्थ यात्रा, दान, यज्ञ आदि में संलग्न होना ही कर्म योग है। ज्ञान योग वह है, जिसका अभ्यास उनके द्वारा किया जाता है जिन्होंने स्वयं अपने मानस पर विजय प्राप्त की है और वह आत्मा में पुर्णतः स्थित है जिसका सांसारिक देह से संबंध नहीं है।

श्लोक 24

भक्तियोग: परैकांतप्रीत्या ध्यानादिशु स्थिति: |
त्रयाणामपि योगानां त्रिभि: अन्योन्य संगम: ||

lakshminarasimha-and-prahladaप्रहलाद – भक्ति योगियों में श्रेष्ठ

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

भक्ति योग: – भक्ति योग परैकांत प्रीत्यापरमात्मा श्रीमन्नारायण के प्रति प्रीति के साथ
ध्यानादिशु स्थिति: – उनके ध्यान में पुर्णतः स्थित रहना, उनकी आराधना करना, उन्हें दंडवत प्रणाम करना, आदि
त्रयाणामपि योगानां – कर्म, ज्ञान और भक्ति नामक तीन योगों में
अन्योन्य संगम: – प्रत्येक योग में, अन्य दो योग स्वभावतः मिश्रित है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

भक्ति योग, परमात्मा श्रीमन्नारायण के प्रति प्रीति और उनके ध्यान में पुर्णतः स्थित रहने, उनकी आराधना करने, उन्हें दंडवत प्रणाम करने, आदि की स्थिति है। कर्म, ज्ञान और भक्ति नामक तीन योगों में से प्रत्येक योग में, अन्य दो योग स्वभावतः मिश्रित है।

श्लोक 25

नित्य नैमित्तिकानां पराराधन रूपिणाम् |
आत्मदृष्टेस् त्रयोप्येते योगद्वारेण साधका: ||

SandhyavandanamListen

शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

पराराधन रूपिणाम् – वह जो परम पुरुष (श्रीमन्नारायण) की आराधना के रूप में है
नित्य नैमित्तिकानां – नित्य कर्म और नैमित्य कर्म के लिए (जैसा कि पूर्व श्लोक- त्रिभि: संगम: में देखा गया है)
एते त्रय अपि: – यह तीनों योग
योग द्वारेण – समाधि (सम्पूर्ण संधि, जो मानस के पूर्ण नियंत्रण को प्रदर्शित करती है) की स्थिति तक पहुँचाते है
आत्म दृष्टे: – आत्म साक्षात्कार के लिए (आत्म अनुभव)
साधका: – साधन है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

यह तीनों योग, जो परम पुरुष (श्रीमन्नारायण) की आराधना के रूप में है, नित्य कर्म और नैमित्य कर्म करते हुए (जैसा कि पूर्व श्लोक- त्रिभि: संगम: में देखा गया है) आत्म साक्षात्कार (आत्म अनुभव) के साधन बनते है, जो तदन्तर समाधि (सम्पूर्ण संधि, मानस के पूर्ण नियंत्रण को प्रदर्शित करती है) की स्थिति तक पहुँचाते है।

श्लोक 26

निरस्त निखिलाज्ञानो दृष्टवात्मानम् परानुगम |
प्रतिलभ्य परां भक्तिं तयैवाप्नोति तत्पदम् ||

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

निरत निखिल अज्ञानो – सभी अज्ञान (जो लक्ष्य प्राप्ति में बाधाएं है) से दूर
परानुगम – परम पुरुष (श्रीमन्नारायण भगवान) के दास रहना
आत्मानं – स्वाभाविक प्रकृति
दृष्टवा – देखा गया
परां भक्तिं – शुद्ध भक्ति
प्रति लभ्य – प्राप्ति
तया एव – उस शुद्ध भक्ति द्वारा
तत् पदम् – भगवान के चरण कमल
आप्नोति – पहुँचता है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

[जीवात्मा] सभी अज्ञान (जो लक्ष्य प्राप्ति में बाधाएं है) से दूर होकर और स्वयं की स्वाभाविक प्रकृति अर्थात परम पुरुष (श्रीमन्नारायण भगवान) के दासभूत रहने को जानकर, शुद्ध भक्ति को प्राप्त करके, उस शुद्ध भक्ति के द्वारा वह भगवान के चरण कमल में पहुँचता है।

श्लोक 27

भक्ति योगस्तदर्थी चेत समग्रैश्वर्य साधक: |
आत्मार्थी चेत त्रयोप्येते तत्कैवल्यस्य साधका: ||

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

भक्ति योग: – भक्ति योग
तदर्थी चेत – यदि वह (महान) सम्पदा की अभिलाषा करता है
समग्रैश्वर्य साधक: – महान सम्पदा प्रदान करेगें
एते त्रय: अपि – ये सभी तीन योग
आत्मार्थी चेत – यदि वह स्वयं की आत्मा के भोग की अभिलाषा करता है
तत् कैवल्यस्य साधका: – वह विशिष्ट आत्म-अनुभव प्रदान करेगें

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

यदि कोई (महान) सम्पदा की अभिलाषा करता है, तब भक्ति योग उसे वह महान सम्पदा प्रदान करता है। ये सभी तीन योग उसे यह विशिष्ट आत्म-अनुभव प्रदान करते है, जब कोई स्वयं की आत्मा के भोग की अभिलाषा करता है।

श्लोक 28

ऐकांत्यम् भगवतयेषां समानमधिकारणाम् |
यावत्प्रपत्ति परार्थी चेत तदेवात्यन्तमश्नुते ||

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

ऐषां अधिकारिणाम – सभी तीन प्रकार के अधिकारीयों के लिए (तीन प्रकार के योगों में संलग्न)
भगवतीभगवान के प्रति
ऐकांत्यम् – अन्य देवतों के बजाय सिर्फ भगवान के प्रति सम्पूर्ण भक्ति
समानं – साधारण
यावत् प्रपत्ति – प्रतिफल को प्राप्त करने के पूर्व
परार्थी चेत – (यदि वे जो सम्पदा और आत्मा के भोग की अभिलाषा करते है) परम पुरुष (श्रीमन्नारायण भगवान) के चरण कमलों को प्राप्त करने की अभिलाषा करे
तत् ऐवा – मात्र वे चरण कमल
अत्यन्तम् – सदा
अश्नुते – प्राप्त (उपासक ज्ञानी जो भक्ति योग का अभ्यास करते है) –यदि वह अंत तक उसका अनुसरण करे, वह निश्चित ही भगवान के चरण कमलों को प्राप्त करेगा)

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

अन्य देवतों के बजाय सिर्फ भगवान के प्रति सम्पूर्ण भक्ति इन सभी तीन प्रकार के अधिकारीयों के लिए (तीन प्रकार के योगों में संलग्न) के लिए सर्व साधारण है। मनोनुकूल प्रतिफल को प्राप्त करने के पूर्व (सम्पदा और आत्मानुभूति), यदि वे लोग जो सम्पदा और आत्मा के भोग की अभिलाषा करते है, अपने मानस को परिवर्तित करके, परम पुरुष (श्रीमन्नारायण भगवान) के चरण कमलों को प्राप्त करने की अभिलाषा करे, तब वह निश्चित ही भगवान के चरण कमलों को ही प्राप्त करेगा। (उपासक ज्ञानी भी, जो भक्ति योग का अभ्यास करते है – यदि वे भी अंत तक उसका अनुसरण करे, वह भी निश्चित ही भगवान के चरण कमलों को प्राप्त करेगा)।

– अदियेन भगवती रामानुजदासी

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