५.२० – न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ५

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श्लोक

न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित: ||

पद पदार्थ

स्थिर बुद्धि: – शाश्वत आत्मा में ध्यान केंद्रित
असम्मूढ: – इस अस्थायी शरीर को आत्मा समझ, न मोहित होकर
ब्रह्मविद् – ( आचार्यों के निर्देशों से ) निर्मल आत्मा , जिसे ब्रह्म कहते हैं , के बारे में जानकर
ब्रह्मणि स्थित: – इस ब्रह्म पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित
प्रियं प्राप्य – उसके प्रिय ( सांसारिक ) उद्देश्यों को प्राप्त करते समय
न प्रहृष्येत् – प्रसन्न नहीं होता
अप्रियं प्राप्य च – प्रतिकूल वस्तुओं को प्राप्त करते समय
न उद्विजेत् – नहीं डरता

सरल अनुवाद

वह, जो शाश्वत आत्मा में ध्यान केंद्रित है , जो इस अस्थायी शरीर को आत्मा समझकर मोहित नहीं होता , ( आचार्यों के निर्देशों से ) निर्मल आत्मा , जिसे ब्रह्म कहते हैं , के बारे में जानकर , इस ब्रह्म पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित रहता है | ऐसा व्यक्ति उसके प्रिय ( सांसारिक ) उद्देश्यों को प्राप्त करते समय प्रसन्न नहीं होता और प्रतिकूल वस्तुओं को प्राप्त करते समय नहीं डरता |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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