गीतार्थ संग्रह – 4

श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनये नम:

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द्वितीय षट्खंड के प्रत्येक अध्याय का सारांश

श्लोक 11

स्वयाथात्म्यम् प्रकृत्यास्य तिरोधी: शरणागति: |
भक्त भेदा: प्रबुद्धस्य श्रेष्ठयम् सप्तम् उच्यते ||

Nammazhwarश्रीशठकोप स्वामीजी – ज्ञानियों में श्रेष्ठ

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

सप्तमे – सप्तम् अध्याय में
स्वयाथात्म्यम् – परमपुरुष अर्थात उपासना (भक्ति) के विषय स्वयं भगवान का सच्चा स्वरुप
प्रकृत्या – मूल प्रकृति (मौलिक पदार्थों) के साथ
अस्य तिरोधी: – (वह ज्ञान) जो आवृत है (जीवात्मा के लिए)
शरणागति: – समर्पण (जो इस आवरण को दूर करेगी)
भक्त भेदा: – (चार) प्रकार के भक्त
प्रबुद्धस्य श्रेष्ठयम् – ज्ञानी की श्रेष्ठता/ महानता (चार प्रकार के भक्तों में)
उच्यते – कहा गया है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

सप्तम् अध्याय में, उपासना (भक्ति) के विषय- परमपुरुष अर्थात स्वयं भगवान का सच्चा स्वरुप, (जीवात्मा के लिए) आवरण की वह (भगवान के विषय में ज्ञान) स्थिति, भगवान के प्रति समर्पण (जो इस आवरण को दूर करेगी), (चार) प्रकार के भक्त और (चार प्रकार के भक्तों में) ज्ञानी की श्रेष्ठता/ महानता के विषय में कहा गया है।

श्लोक 12

ऐश्वर्याक्षरयातात्म्य भगवच्चरणारर्थिनाम |
वेद्योपाधेयभावानाम् अष्टमे भेद उच्यते ||

paramapadhanathanपरमपद में भगवान की सेवा कैंकर्य करना ही परम लक्ष्य है

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

ऐश्वर्य अक्षर यातात्म्य भगवच्चरणारर्थिनाम् – तीन प्रकार के भक्तों के लिए अर्थात ऐश्वर्यार्थी जो भौतिक धन सम्पदा की कामना करते है, कैवल्यार्थी जो भौतिक देह से मुक्त होकर स्वयं (आत्मा) को भोग करने की कामना करते है, ज्ञानी जो भगवान के चरण कमलों को प्राप्त करने की अभिलाषा करते है
वेद्य उपाधेय भावानाम् – वह सिद्धांत जिन्हें समझा गया है और जिनका अभ्यास किया जाता है
भेदं – विभिन्न प्रकार के
अष्टमे – अष्टम् अध्याय में
उच्यते – कहा गया है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

अष्टम् अध्याय में, उन विभिन्न सिद्धांतों के विषय में कहा गया है, जिन्हें तीन प्रकार के भक्तों अर्थात ऐश्वर्यार्थी- जो भौतिक धन सम्पदा की कामना करते है, कैवल्यार्थी- जो भौतिक देह से मुक्त होकर स्वयं (आत्मा) को भोग करने की कामना करते है, और ज्ञानी- जो भगवान के चरण कमलों को प्राप्त करने की अभिलाषा करते है, द्वारा समझा गया है और अभ्यास किया जाता है।

श्लोक 13

स्वमाहात्म्यम् मनुष्यत्वे परत्वं च महात्मानाम् |
विशेषो नवमे योगो भक्तिरूप: प्रकिर्तित: ||

world-in-krishna-mouthमाता यशोदा को अपने मुख में ब्रह्माण्ड के दर्शन कराते श्री कृष्ण

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

स्वमाहात्म्यम् – स्वयं का महात्म्य
मनुष्यत्वे परत्वं – मनुष्य रूप में भी परत्व (सर्वोच्च) रहना
महात्मानाम् विशेष: – ऐसे ज्ञानियों की श्रेष्ठता, जो महात्मा है
भक्तिरूप: योग: – और उपासना जिसे भक्ति योग भी कहा जाता है
नवमे – नवम् अध्याय में
प्रकिर्तित: – भली प्रकार समझाया गया है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

नवम् अध्याय में, उनका स्वयं का महात्म्य, मनुष्य रूप में भी उनका परत्व (सर्वोच्च), ऐसे ज्ञानियों की श्रेष्ठता, जो महात्मा है (इनके साथ ही) और उपासना जिसे भक्ति योग भी कहा जाता है, को भली प्रकार से समझाया गया है।

श्लोक 14

स्वकल्याणगुणानंत्यकृतस्नस्वाधिनतामति: |
भक्तयुतपत्तिविवृद्ध्यार्थ्ता विस्तीर्णा दशमोधिता ||

bhagavan

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

भक्ति उत्पत्ति विवृद्धि अर्थता – साधन भक्ति [भगवान को भक्ति योग के माध्यम से प्राप्त करने की विधा] को प्रत्यक्ष करना और पोषित करना
स्वकल्याण गुण अनंत्य कृतस्न स्वाधिनता मति: – उनके दिव्य गुणों का अनंत स्वाभाव, वे ब्रह्माण्ड के एकमात्र स्वामी/ नियंत्रक है इसका ज्ञान
विस्तीर्णा – विस्तार से
दशमोधिता – दशम अध्याय में समझाया गया

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

साधन भक्ति [भगवान को भक्ति योग के माध्यम से प्राप्त करने की विधा] को प्रत्यक्ष करना और पोषित करना, भगवान के अनंत दिव्य गुण, यह ज्ञान कि वे ही ब्रह्माण्ड के एकमात्र स्वामी/ नियंत्रक है, आदि को दशम् अध्याय में विस्तार से समझाया गया है।

श्लोक 15

एकादशे स्वयातात्म्यसाक्षात्कारावलोकनम् |
दत्तमुक्तं विधिप्राप्तयोर्भक्तयेकोपायता तथा ||

viswarupam

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

एकादशे – एकादश अध्याय में
स्व यातात्म्य साक्षात्कार अवलोकनम् – उन्हें देखने के लिए दिव्य चक्षु
दत्तम् उक्तं – कहा गया है कि (ऐसे चक्षु श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन) को प्रदान किये गए
तथा – उसी प्रकार
विधि प्राप्तयो: – उन सर्वेश्वर भगवान को जानना, (देखना,) प्राप्त करना, आदि
भक्ति एक उपायता – भक्ति ही एक मात्र उपाय है
उक्तं – कहा गया है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

एकादश अध्याय में, यह कहा गया है कि (श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को) भगवान के सच्चे दर्शन के लिए दिव्य चक्षु प्रदान किये गए। उसी प्रकार, यह भी कहा गया है कि उन सर्वेश्वर भगवान को जानने, (देखने), प्राप्त करने, आदि के लिए भक्ति ही एक मात्र उपाय है।

श्लोक 16

भक्ते: श्रेष्ठयमुपायोक्तिरशक्तस्यात्मनिष्टथा |
तत्प्रकारास्त्वतिप्रितिर् भक्ते द्वादश उच्यते ||

krishna-vidhuraविदुर के प्रति स्नेहशील श्रीकृष्ण

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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

भक्ते: श्रेष्ठयं – आत्म उपासनम् (स्वयं के आत्मानुभव में संलग्न होना) की उपमा में भगवान के प्रति भक्ति योग की महत्ता
उपाय उक्ति: – ऐसी भक्ति विकसित करने के उपाय को समझाया गया है
अशक्तस्य – वह जो ऐसी भक्ति करने में असक्षम है
आत्म निष्ठा – आत्मानुभूति में लग्न
तत् प्रकारा: – कर्म योग में संलग्न होने के लिए किस प्रकार के गुणों की आवश्यकता है, आदि
भक्ते अतिप्रीति: तु – अपने भक्त के प्रति अपार स्नेह और प्रीति
द्वादशे – द्वादश अध्याय में
उच्यते – कहा गया है

सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)

द्वादश अध्याय में, आत्म-उपासना (स्वयं के आत्मानुभव में लीन होने) की उपमा में भगवान के प्रति भक्ति योग की महत्ता, ऐसी भक्ति विकसित करने के उपाय, ऐसी भक्ति करने में असक्षम अधिकारी के लिए आत्मानुभूति में संलग्नता, कर्म योग में संलग्न होने के लिए विशिष्ट गुणों की आवश्यकता, आदि एवं भगवान का अपने भक्तों के प्रति अपार स्नेह और प्रीति के विषय में कहा गया है।

– अदियेन भगवती रामानुजदासी

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