श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
गीता संग्रह के बीसवें श्लोक में आळवन्दार स्वामीजी सोलहवें अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “ सोलहवें अध्याय में – सत्य (जिसे प्राप्त करना है) के ज्ञान और विधि के अभ्यास (जिससे लक्ष्य प्राप्त होगा) को स्थापित करने के लिए (मनुष्यों में) देव (संत) और असुर (क्रूर) का वर्गीकरण समझाने के बाद, (मनुष्यों के) शास्त्र से बंधे होने के बारे में सत्य कहा गया है”।
मुख्य श्लोक / पद
श्री भगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – निर्भयता, हृदय की पवित्रता, आत्मा (जो पदार्थ से भिन्न है) पर ध्यान केन्द्रित करना, धर्मपूर्वक अर्जित धन को सज्जनों को दान में देना, मन को विषय-भोगों में लिप्त होने से रोकना, पंच महायज्ञ आदि में संलग्न रहना (जैसे भगवान को तिरुवाराधन, बिना किसी अपेक्षा के), वेदों का अध्ययन करना, तपस्या करना (जैसे एकादशी व्रत आदि), तथा मन, वाणी और कर्मों में सामंजस्य रखना…..
टिप्पणी: प्रथम तीन श्लोकों में दिव्य प्रकृति वाले व्यक्ति के गुणों का वर्णन किया गया है।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
….किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना, सत्य बोलना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, क्रोध (जिससे दूसरों को हानि पहुँचती है) न करना, त्यागना (उन पहलुओं का जो स्वयं के लिए कोई कल्याण नहीं पहुँचाते), इन्द्रियों (मन को छोड़कर) को विषय-भोगों में लिप्त न होने के लिए प्रशिक्षित करना, निन्दा (जिससे दूसरों को हानि पहुँचती है) से दूर रहना , अन्य प्राणियों के कष्टों को सहन न कर पाना, सांसारिक विषयों से विरक्त रहना, नम्र होना (जिससे सज्जन व्यक्ति आसानी से आपके निकट आ सकें), (हानिकारक कार्यों में लिप्त होने से) लज्जित होना, उन पहलुओं की भी इच्छा न करना जो पहुँच में हैं….
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।
…(बुरे लोगों द्वारा) अपराजित रहना, (नुकसान पहुँचाने वालों के प्रति भी) सहनशीलता रखना, (भयंकर परिस्थितियों में भी) दृढ़ रहना, (शास्त्र में बताए गए) गतिविधियों में संलग्न रहने के लिए (मन, वाणी और शरीर से) पवित्रता रखना, दूसरों के श्रेष्ठ कार्यों में हस्तक्षेप न करना, अभिमान का अभाव (जैसे गुण) उन लोगों में विद्यमान हैं, जिनका दिव्य जन्म (भगवान के आदेश का पालन करने के लिए) हुआ है , हे भारतवंशी!
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।
हे कुन्तीपुत्र! जिनके पास असुरों का धन है (अर्थात भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करना), उनमें प्रसिद्धि पाने के लिए धर्म का पालन (धर्मी होने का) करने का गुण, (इन्द्रिय सुख भोगने के कारण उत्पन्न) अभिमान , महान अहंकार, क्रोध (जो दूसरों को हानि पहुँचाता है), कठोरता (जो सज्जन लोगों को परेशान करता है) और अज्ञान (सत्य को समझने में तथा क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए) जैसे गुण विद्यमान हैं।
टिप्पणी: इस श्लोक में आसुरी प्रकृति वाले व्यक्ति के गुणों का वर्णन किया गया है।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।
देवताओं का धन (अर्थात, मेरे आदेशों का पालन करना) संसार से मुक्ति की ओर ले जाता है; असुरों का धन (अर्थात् मेरी आज्ञा का उल्लंघन करना) नीच गति की प्राप्ति कराता है। हे पाण्डुपुत्र! शोक मत करो (यह सोचकर कि “क्या मैं असुर योनि में जन्मा हूँ?”); तुम देवताओं की सम्पत्ति को पूर्ण करने के लिए देवता (दिव्य व्यक्ति) के रूप में जन्मे हो।
टिप्पणी: जब अर्जुन अपने स्वभाव पर संदेह करते हुए चिंतित हो गया, तो कृष्ण ने उसकी चिंता दूर करते हुए कहा कि अर्जुन में दिव्य स्वभाव है।
छठे श्लोक से वे आसुरी गुणों का विस्तृत वर्णन करते हैं, क्योंकि दैवी गुणों की व्याख्या पहले ही कर्म, ज्ञान और भक्ति योग के वर्णन करते हुए की जा चुकी है।
इन श्लोकों में राक्षस प्रवृत्ति के व्यक्तियों द्वारा धर्म, ईश्वर और ईश्वरीय पहलुओं की उपेक्षा करके केवल पुरुष और स्त्री शरीर के बीच शारीरिक आकर्षण पर ही ध्यान केन्द्रित करने के बारे में विस्तार से बताया गया है। वे निरंतर भौतिकवादी इच्छाओं के लिए प्रयास करते रहते हैं, इन्द्रिय सुखों को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मानते हैं और उसके लिए गलत तरीकों से भी धन अर्जित करते हैं। वे स्वयं को स्वतंत्र और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने वाला मानते हैं। ऐसा होने पर वे अपने प्रयासों के बीच में ही असफल हो जाते हैं और अपने पिछले कर्मों के कारण नरक में गिर जाते हैं। उनमें अभिमान होता है, वे अपने आपको बलवान, उदार समझते हैं, तथा उनमें इच्छाएं, क्रोध, ईर्ष्या आदि भी होती हैं।
तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् |
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ||
जो (राक्षसी लोग) मेरे प्रति द्वेष रखते हैं (जैसा कि पहले बताया गया है), क्रूर हैं, मनुष्यों में नीच हैं, अशुभ हैं, निरंतर मैं उनको जन्मों में (जिसमें बार-बार जन्म, मृत्यु, वृद्धत्व और बीमारी है) वो भी आसुरी योनियों में, धकेलता हूँ |
टिप्पणी: इस श्लोक तथा अगले श्लोक में उन्होंने आसुरी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों के परिणाम समझाते हैं।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि |
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ||
हे कुन्तीपुत्र! (जैसा कि पिछले श्लोक में बताया गया है), राक्षसी योनि प्राप्त कर चुके ये लोग, आने वाले जन्मों में मेरे बारे में मिथ्याबोध पालते हुए, मेरे बारे में सच्चा ज्ञान प्राप्त किए बिना, उन [नीच] जन्मों से भी निम्न अवस्था प्राप्त करते हैं।
२१वें श्लोक में आत्मा को नष्ट करने वाली इस आसुरी प्रकृति का कारण बताया गया है।
२२वें श्लोक में आसुरी प्रकृति को त्यागने वालों को प्राप्त होने वाले अनेक लाभों की श्रृंखला बताई गई है।
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत : |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||
वेद , जो मेरी आदेश है, को त्यागकर जो अपनी इच्छा से कार्य कर रहा है, उसे परलोक में स्वर्ग आदि कोई भी लाभ प्राप्त नहीं होता है। इस जन्म में भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता है । वह अंतिम लक्ष्य (मुझे प्राप्त करने का) भी प्राप्त नहीं करता है।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ||
इस प्रकार, वेद ही तुम्हारे लिए (ज्ञान का कारण होने के कारण) एकमात्र प्रमाण है, यह निर्धारित करने के लिए कि क्या करना है और क्या त्यागना है। इस प्रकार, वास्तव में (सर्वोच्च भगवान का ) सिद्धांत, जो शास्त्र में बताया गया है और धर्म जो उन्हें प्राप्त करने के साधन के रूप में जानते हुए, तुम यहाँ इस कर्म भूमि [किसी के कर्मों को करने के लिए निर्धारित स्थान] में निर्धारित गतिविधियों (और ज्ञान) को आगे बढ़ाने के लिए योग्य हो ।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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