३.१६ – एवम् प्रवर्तितम् चक्रम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ३

<< अध्याय ३ श्लोक १५

श्लोक

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥

पद पदार्थ

पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!
एवं – इस प्रकार
प्रवर्तितं  – ऐसे पहलू जो एक दूसरे पर निर्भर हैं (भगवान द्वारा व्यवस्थित)
चक्रं – पहिए जैसी कारण-प्रभाव व्यवस्था
इह – जो साधन करने की अवस्था में है
य :- जो 
न अनुवर्तयति – इसका अनुसरण नहीं करता (यज्ञ में न शामिल होकर )
स:- वह
अघायु: – पापपूर्ण जीवन काल
इंद्रियाराम: – इंद्रियों के बगीचे में आनंदित 
मोघं – व्यर्थ 
जीवति – जीता  है

सरल अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र! इस प्रकार (जहाँ )पहिए जैसे, एक-दूसरे पर निर्भर, (भगवान द्वारा व्यवस्थित  )कारण-प्रभाव व्यवस्था है;  जिसे, यदि कोई व्यक्ति, साधन करने की अवस्था होते हुए भी  ,  (यज्ञ में शामिल न होकर) उसका पालन नहीं करता है , वह पापमय जीवन काल प्राप्त करता है,  और  इंद्रियों के बगीचे में आनंदित रहते हुए  व्यर्थ जीवन जीता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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