११.३३ – तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ यशो लभस्व

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ११

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श्लोक

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।

पद पदार्थ

तस्मात् – उपर्युक्त कारण से
त्वम् – तुम
उत्तिष्ठ – उठो (लड़ने के लिए)
शत्रून् जित्वा यश: लभस्व – शत्रुओं को परास्त करके यश प्राप्त करो
समृद्धं राज्यं भुङ्क्ष्व – धन-धान्य से युक्त राज्य का भोग करो
मया एव एते पूर्वं निहताः – इन लोगों (जिन्होंने अन्यायपूर्ण कार्य किये हैं) को तो मैंने पहले ही मार डालने की इच्छा कर ली है
सव्यसाचिन् – हे अर्जुन! तुम जो अपने बाएँ हाथ से भी बाण चलाने में समर्थ हो!
निमित्त मात्रं भव – तुम केवल मेरे हाथों में (बाण के समान) निमित्त मात्र बनो

सरल अनुवाद

उपर्युक्त कारण से (लड़ने के लिए) उठो , शत्रुओं को परास्त करके यश प्राप्त करो और धन-धान्य से युक्त राज्य का भोग करो। हे अर्जुन! तुम तो अपने बाएँ हाथ से भी बाण चलाने में समर्थ हो ! इन लोगों को तो मैंने पहले ही मार डालने की इच्छा कर ली है। तुम केवल मेरे हाथों में (बाण के समान) निमित्त मात्र बनो।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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