१७.१७ – श्रद्धया परया तप्तं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १७

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श्लोक

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत् त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।

पद पदार्थ

अफलाकाङ्क्षिभि: – जो कर्मफल से विरक्त हैं
युक्तैः – इस विचार से करते हैं कि यह परमात्मा की पूजा का ही एक अंग है
नरैः – उन पुरुषों द्वारा
परया श्रद्धया – बड़ी विश्वास के साथ
यत् त्रिविधं तप: तप्तं – जो तीन प्रकार का तप (जो पहले बताया जा चुका है) किया जाता है
तत् – उसे
सात्त्विकं परिचक्षते – (विद्वानों द्वारा) सात्विक तप (अच्छाई की विधा में तपस्या) कहा गया है

सरल अनुवाद

जो तीन प्रकार का तप (जो पहले बताया जा चुका है) उन पुरुषों द्वारा, जो कर्मफल से विरक्त हैं और इस विचार से करते हैं कि यह परमात्मा की पूजा का ही एक अंग है, बड़ी विश्वास के साथ किया जाता है, उसे (विद्वानों द्वारा) सात्विक तप (अच्छाई की विधा में तपस्या) कहा गया है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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