६.६ – बन्धुरात्मात्मनस्तस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

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श्लोक

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ते तात्मैव शत्रुवत् ॥

पद पदार्थ

येन – जिसके द्वारा
आत्मा – उसका मन
आत्मन एव – उसके द्वारा
जितः – जीत लिया गया हो ( लौकिक अभिलाषाओं में बिना संलग्न )
तस्य आत्मन – ऐसे व्यक्ति के लिए
आत्मा – ऐसा मन
बन्धु: – मित्र
अनात्मन तु – वो व्यक्ति जो अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं की
आत्मा एव – उसका मन ही
शत्रुवत् – शत्रु के समान
शत्रुत्वे – भलाई के लिए बाधा बनने में
वर्तेत – संलग्न होता है

सरल अनुवाद

ऐसे व्यक्ति के लिए जिसके मन पर उसके द्वारा जीत लिया गया हो ( सांसारिक सुखों से जुड़े बिना ), ऐसा मन उसका मित्र है ; वो व्यक्ति जो अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं की, उसका मन ही, शत्रु के समान, भलाई के लिए बाधा बनने में संलग्न होता है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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