४.३८ – न हि ज्ञानेन सदृशं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं  योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ॥

पद पदार्थ

इह – इस दुनिया में
ज्ञानेन सदृशं – आत्म ज्ञान के समान 
पवित्रम् – शुद्ध करने वाला
न विद्यते – (कोई अन्य विकल्प)  नहीं है
तत्  – ऐसा ज्ञान
स्वयं – स्वयं
योग संसिद्ध: -जो  (पहले कहा गया)  कर्म योग में पूर्णता प्राप्त कर लिया हो 
कालेन – समय के साथ
आत्मनि – स्वयं मे
विन्दति – प्राप्त हो जाता  है

सरल अनुवाद

इस संसार में आत्मज्ञान के समान पवित्र करने वाली कोई  अन्य वस्तु नहीं है। जो  (पहले कहा गया) कर्मयोग में पूर्णता का ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसे समय के साथ स्वयं का एहसास हो जाता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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