१८.६५ – मन्मना भव मद्भक्तो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

मन्मना भव मद्भक्तो मध्याजि मां  नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि  सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||

पद पदार्थ

मन्मना भव – अपना मन निरंतर मुझमें केन्द्रित रखो;
मद्भक्त: भव – (इस से भी ) मुझमें गहरा प्रेम रखो;
मध्याजी भव – (इस से भी) मेरे उपासक बनो;
मां – मुझे
नमस्कुरु – (अपने मन, शरीर और वाणी जैसे तीनों माध्यमों से) नमस्कार करो;
मामेव एष्यसि– (इस प्रकार करने से ) तुम अवश्य मेरे पास पहुँचोगे;
सत्यं ते प्रतिजाने – मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यह सत्य है;

(क्योंकि)
मे प्रिय: असि – तुम मुझे प्रिय हो

सरल अनुवाद

अपना मन  निरंतर मुझमें केन्द्रित कर, (इस से भी ) मुझमें   गहरा  प्रेम रखकर,(इस से भी) मेरे उपासक बनकर , (मन, वाणी और शरीर जैसे तीनों माध्यमों  से) मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार करने से)  तुम अवश्य  मेरे पास पहुँचोगे, यह सत्य है , ऐसा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ (क्योंकि) तुम मुझे प्रिय हो।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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