श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनये नम:
प्रथम षट्खंड के प्रत्येक अध्याय का सारांश
श्लोक 5
अस्थान स्नेह कारुण्य धर्माधर्मधियाकुलं |
पार्थं प्रपन्नमुद्धिस्य शास्त्रावतरणम् कृतं ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
अस्थान स्नेह कारुण्य धर्माधर्मधियाकुलं – प्राकृतिक अयोग्य संबंधियों के प्रति (जो आत्मा के स्वाभाविक स्वरुप के प्रतिकूल है) मोह और आसक्ति के परिणामस्वरूप, व्यग्र बुद्धि से स्वयं के धर्म युद्ध को अधर्म जानना
आकुलं – व्याकुलता
प्रपन्नम् – समर्पण
पार्थं उद्धिस्य – अर्जुन के प्रति
शास्त्रावतरणम् कृतं – गीता शास्त्र का सूत्रपात किया (प्रथम अध्याय और द्वितीय अध्याय के प्रथम भाग में)
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
गीता शास्त्र (प्रथम अध्याय और द्वितीय अध्याय के प्रथम भाग में) का सूत्रपात अर्जुन के हितार्थ किया गया, जिन्होंने प्राकृतिक अयोग्य संबंधियों के प्रति (जो आत्मा के स्वाभाविक स्वरुप के प्रतिकूल है) मोह और आसक्ति के परिणामस्वरूप, व्यग्र बुद्धि से स्वयं के धर्म युद्ध को अधर्म जानते हुए, व्याकुलतावश श्री कृष्ण के प्रति स्वयं का समर्पण किया।
श्लोक 6
नित्यात्मसंगकर्मेहागोचरा संख्यायोगधी: |
द्वितीये स्थितधीलक्षा प्रोक्ता तन मोह शांतये ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
नित्य आत्म असंग कर्म एहा गोचरा – नित्य आत्मा, कर्मों में विरक्ति जैसे प्रसंग
स्थितधीलक्षा – स्थितप्रज्ञा (निर्णय और ज्ञान में दृढ़ता) की अवस्था को लक्ष्य के रूप में जानना
सांख्य योगधी: – स्वयं और कर्म योग का ज्ञान
तन मोह शांतये – अर्जुन की व्यग्रता का उन्मूलन करने के लिए
द्वितीये – द्वितीय अध्याय का द्वितीय भाग
प्रोक्ता – निर्देशित
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
अनंत नित्य आत्मा, विरक्तिपूर्ण धार्मिक आचरण/कर्म, स्थितप्रज्ञा (निर्णय और ज्ञान में दृढ़ता) की अवस्था को लक्ष्य के रूप में धारण करना, स्वयं और कर्म योग का ज्ञान, जैसे प्रसंगों का निर्देश द्वितीय अध्याय के द्वितीय भाग में अर्जुन की व्यग्रता का उन्मूलन करने के लिए दिया गया है।
श्लोक 7
असक्त्या लोकरक्षायै गुणेश्वारोप्य कर्तरुताम् |
सर्वेश्वरे वान्यस्योक्ता तृतीये कर्मकार्यता ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
लोकरक्षायै – लोक रक्षा हेतु (जो ज्ञान योग के अधिकारी नहीं है)
गुणेशु – उन गुणों में जो सत्व (शांत), रज (राग) और तमस (अज्ञान) है
कर्तरुताम आरोप्य – स्वयं कृत कार्यों का मनन/अनुभव करना
सर्वेश्वरे वा न्यस्य – ऐसे कर्मों को सर्वेश्वर भगवान के प्रति समर्पण कर देना
असक्त्या – मोक्ष के अतिरिक्त किसी भी अन्य लक्ष्य के प्रति आसक्ति का त्याग
कर्म कार्यता – यह कि, हमें अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए
तृतीये उक्ता – तृतीय अध्याय में समझाया गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
तृतीय अध्याय में लोक रक्षा हेतु (जो ज्ञान योग के अधिकारी नहीं है) यह समझाया गया है कि हमें स्वयं कृत कार्यों का अनुभव करते हुए, जो सत्व (शांत), रज (राग) और तमस (अज्ञान)- तीन प्रकार के गुणों से प्रभावित है, अपने निर्धारित कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए और ऐसे कर्मों को सर्वेश्वर भगवान के प्रति समर्पण करके और (उन कर्तव्यों का पालन करते हुए) मोक्ष के अतिरिक्त किसी भी अन्य लक्ष्य के प्रति आसक्ति का त्याग करना चाहिए।
श्लोक 8
प्रसंगात स्वस्वभावोक्ति: कर्मणोकर्मतास्य च |
भेदा:,ज्ञानस्य माहात्म्यम् चतुर्थाध्याय उच्यते ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
चतुर्थाध्याय – चतुर्थ अध्याय में
कर्मण: अकर्मथा उच्यते – कर्म योग (जिसमें ज्ञान योग समाहित है) ही ज्ञान योग है यह समझाया गया है
अस्य भेदाः च [उच्यते] – कर्म योग के स्वरुप और विभाजनों को समझाया गया है
ज्ञानस्य माहात्म्यम् [उच्यते] – सच्चे ज्ञान की महानता को भी समझाया गया है
प्रसंगात – (उनके शब्दों की प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए) प्रसंगवश
स्वस्वभावोक्ति: – अपने उन गुणों के (जिन गुणों का उनके अवतारों में भी परिवर्तन नहीं होता) उपदेश को प्रारंभ में समझाया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
चतुर्थ अध्याय में, यह समझाया गया है कि कर्म योग (जिसमें ज्ञान योग समाहित है) ही ज्ञान योग है, कर्म योग के स्वरुप और विभाजनों, सच्चे ज्ञान की महानता और (प्रारंभ में, अपने वचनों की प्रामाणिकता स्थापित करने हेतु) प्रसंगवश अपने उन गुणों के उपदेश (जिन गुणों का उनके अवतारों में भी परिवर्तन नहीं होता) को भी समझाया गया है।
श्लोक 9
कर्मयोगस्य सौकर्यं शैग्रयम् कास्चन तद्विधा: |
ब्रह्मज्ञान प्रकारस्च पंचमाध्याये उच्यते ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
कर्म योगस्य – कर्म योग की
सौकर्यं – साध्यता/व्यवहारिकता
शैग्रयम् – लक्ष्य को शीघ्रता से प्राप्त करने का पक्ष
कास्चन तद्विधा: – कर्म योग के ऐसे अनुषंगी भाग
ब्रहम ज्ञान प्रकार: च – सभी पवित्र आत्माओं को समान स्तर से देखने की स्थिति
पंचमाध्याये – पंचम अध्याय में
उच्यते – कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
पंचम अध्याय में कर्म योग की साध्यता, उसके द्वारा लक्ष्य को शीघ्रता से प्राप्त करने के पक्ष, उसके अनुषंगी भाग और सभी पवित्र आत्माओं को समान भाव से देखने की स्थिति के विषय में कहा गया है।
श्लोक 10
योगाभ्यासविधिर योगी चतुर्धा योगसाधनम् |
योगसिद्धि: स्वयोगस्य पारम्यम् षष्ट उच्यते ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
योगाभ्यास विधि: – योग का अभ्यास करने की विधि (जिसके द्वारा आत्म साक्षात्कारम् – स्वयं का बोध की प्राप्ति होती है)
चतुर्धा योगे – चार प्रकार के योगी
योग साधनम् – अभ्यास, विरक्ति, आदि, जो इस योग की प्राप्ति के साधन है
योग सिद्धि: – ऐसे योग की अंततः सफलता है (यद्यपि उसके मध्य में विराम हो गया हो)
स्वयोगस्य पारम्यम् – श्री कृष्ण के प्रति भक्ति योग की महानता
षष्टे – षष्ठम् अध्याय में
उच्यते – कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
षष्ठम् अध्याय में योग का अभ्यास करने की विधि (जिसके द्वारा आत्म साक्षात्कारम् – स्वयं का बोध की प्राप्ति होती है), चार प्रकार के योगी, अभ्यास, विरक्ति, आदि, जो इस योग की प्राप्ति के साधन है और श्री कृष्ण के प्रति भक्ति योग की महानता के विषय में कहा गया है।
– अदियेन भगवती रामानुजदासी
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