श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनये नम:
तृतीय षट्खंड के प्रत्येक अध्याय का सारांश
श्लोक 17
देहस्वरुपमात्माप्तिहेतुरात्मविशोधनं |
बंधहेतुर्वीवेकश्च त्रयोदश उधिर्यते ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
देह स्वरुपं – देह का स्वरुप
आत्माप्ति हेतु: – जीवात्मा के स्वरुप को प्राप्त करने के साधन
आत्म विशोधनं – आत्मा के विषय में जानना और अनुसंधान करना
बंध हेतु: – (आत्मा का अचित देह के साथ) बंधन का कारण
विवेक: च – (आत्मा और अचित देह के मध्य) भेद करने की पद्धति
त्रयोदशे – त्रयोदश अध्याय में
उधिर्यते – कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
त्रयोदश अध्याय में – देह का स्वरुप, जीवात्मा के स्वरुप को प्राप्त करने के साधन, (आत्मा के अचित देह के साथ) बंधन के कारण और (आत्मा और अचित देह के मध्य) भेद करने की पद्धति के विषय में कहा गया है।
श्लोक 18
गुणबंधविधा तेषां कर्तृत्वं तन्नीवर्तनम् |
गतित्रयस्वमुलत्वं चतुर्दश उधिर्यते ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
गुण बंध विधा –किस प्रकार तीन प्रकार के गुण अर्थात सत्व, रज और तम्, इस संसार (भौतिक जगत) में बांधते है
तेषां कर्तृत्वं – इन गुणों की प्रकृति ही क्रियाओं की कारक है
तन् निवर्तनं – इन गुणों से निवृत्त होने की पद्धति
गति त्रयस्व मुलत्वं – वे ही इन त्रय प्रकार के प्रतिफलों (श्रेष्ठ सांसारिक संपदा, स्वयं का भोगत्व, भगवान की प्राप्ति) को प्रदान करने वाले है
चतुर्दशे – चतुर्दश अध्याय में
उधिर्यते – कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
चतुर्दश अध्याय में – किस प्रकार तीन प्रकार के गुण अर्थात सत्व, रज और तम्, इस संसार (भौतिक जगत) में बांधते है, इन गुणों की प्रकृति ही क्रियाओं की कारक है, इन गुणों से निवृत्त होने की पद्धति, वे (भगवान) ही इन त्रय प्रकार के प्रतिफलों (श्रेष्ठ सांसारिक संपदा, स्वयं का भोगत्व, भगवान की प्राप्ति) को प्रदान करने वाले है, के विषय में कहा गया है।
श्लोक 19
अचिन्मीश्राध्वीशुद्धाच्च चेतनात् पुरुषोत्तम: |
व्यापनात् भरणात् स्वाम्यात् अन्य: पंचदशोधित: ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
अचिन् मिश्राध् (चेतनात्) – बद्ध जीवात्मा से उत्तम, जो अचित (सांसारिक देह) के साथ संलग्न है
विशुद्धात् चेतनात् च – मुक्त जीवात्मा से उत्तम, जो प्राकृत शरीर से परे है
व्यापनात् – सदा (उनमें) व्याप्त है
भरणात् – सदा (उनके) धारक है
स्वाम्यात् – सदा (उनके) नाथ/स्वामी है
अन्य: – वह जो पृथक है
पुरुषोत्तम: – श्रीमन्नारायण जो पुरुषोत्तम है (सभी आत्माओं में सर्वोत्तम/ सर्वश्रेष्ठ)
पंचदश उधित: – पञ्चदश अध्याय में कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
पञ्चदश अध्याय में श्रीमन्नारायण भगवान जो पुरुषोत्तम है, उनके विषय में कहा गया है। वे (भगवान), बद्ध जीवात्मा से उत्तम है, जो अचित (सांसारिक देह) के साथ संलग्न है, मुक्त जीवात्मा से उत्तम है, जो प्राकृत शरीर से परे है क्यूंकि वे उनसे पृथक है, उनमें व्याप्त है, उनके धारक है और उनके स्वामी है।
श्लोक 20
देवासुरविभागोक्तिपुर्विका शास्त्रवश्यता |
तत्वानुष्ठानविज्ञानस्तेम्ने षोदश उच्यते ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
तत्व अनुष्ठान विज्ञानस्तेम्ने – सत्य (जो प्राप्य है) के विषय में ज्ञान और प्रक्रिया के अभ्यास (जिससे लक्ष्य की प्राप्ति होगी) को स्थापित करना
देव असुर विभाग उक्ति पुर्विका – देवों और असुरों के वर्गीकरण के व्याख्यान के पश्चाद
शास्त्र वश्यता – शास्त्र द्वारा बाध्य, यह सत्य
षोदश – षोडश अध्याय में
उच्यते – कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
षोडश अध्याय में – देवों और असुरों के वर्गीकरण के व्याख्यान के पश्चाद, सत्य (जो प्राप्य है) के ज्ञान और प्रक्रिया के अभ्यास (जिससे लक्ष्य की प्राप्ति होगी) को स्थापित करने के लिए, मनुष्य की शास्त्रों द्वारा बाध्यता के सत्य के विषय में कहा गया है।
श्लोक 21
अशास्त्रमासुरम् कृत्स्नं शास्त्रियं गुणत: पृथक |
लक्षणं शास्त्रसिद्धस्य त्रिधा सप्तधशोधितं ||
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
कृत्स्नं अशास्त्रं – सभी क्रियाएं जिनका आदेश शास्त्रों द्वारा नहीं किया गया है
आसुरं – वे क्रियाएं असुरों के लिए है (क्रूर स्वाभाव वाले) (और इसलिए अनुपयुक्त है)
शास्त्रियं – वे सभी क्रियाएं जिनका आदेश शास्त्रों द्वारा किया गया है
गुणत: – गुणों (सत्व, रज और तम्) पर आधारित
पृथक – तीन पृथक प्रकार से विद्यमान है
शास्त्र सिद्धस्य – उन सभी क्रियायों के लिए, जिनका आदेश शास्त्रों द्वारा किया गया है, जैसे यागम् आदि
त्रिधा लक्षणं – “ओम् तत् सत्” के सभी शब्द (एक साथ जुड़कर, उन क्रियायों को अन्य से अलग करती है) और उन्हें पहचान देती है
सप्तधश उधितं – सप्दश अध्याय में कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
सप्दश अध्याय में – यह समझाया गया है कि वे सभी क्रियाएं जो शास्त्र संमत नहीं है, असुरों (क्रूर स्वाभाव वालों) के लिए है (और इसलिए अनुपयुक्त है), गुणों (सत्व, रज और तम्) पर आधारित वे क्रियाएं जिनका आदेश शास्त्रों द्वारा किया गया है, वे तीन पृथक प्रकार से विद्यमान है। यह बताया गया है कि उन सभी क्रियायों के लिए, जिनका आदेश शास्त्रों द्वारा किया गया है, जैसे यागम् आदि, “ओम् तत् सत्” (के सभी शब्द एक साथ जुड़कर, उन क्रियायों को अन्य से अलग करते है) और उन्हें पहचान देते है।
श्लोक 22
इश्वरे कर्तरुताबुद्धिस्सत्वोपाधेयतान्तिमे |
स्वकर्मपरिणामश्च शास्त्रसारार्थ उच्यते ||
श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा श्रीरंगनाथ भगवान के चरण कमलों में शरणागति का प्रत्यक्ष प्रदर्शन
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शब्दार्थ (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
इश्वरे कर्तरुता बुद्धि: – यह कि सभी क्रियाएं स्वयं भगवान के द्वारा ही की जाती है
सत्व उपाधेयता – यह कि सत्व गुण (शांतचित्त गुण) अनुसरणीय है
स्व कर्म परिणाम: – यह कि मोक्ष इन शांतचित्त क्रियाओं (इन सिद्धांतों से कार्यान्वित) का ही प्रतिफल है
शास्त्र सारार्थ: च – भक्ति और प्रप्पति, जो गीता शास्त्र के सार है
अन्तिमे – गीता के अंत में अर्थात अठारहवे अध्याय में
उच्यते – कहा गया है
सुगम अनुवाद (पुत्तुर कृष्णमाचार्य स्वामी के तमिल अनुवाद पर आधारित)
गीता के अंत में अर्थात अठारहवे अध्याय में, यह कहा गया है कि सभी क्रियाएं स्वयं भगवान के द्वारा ही की जाती है, सत्व गुण (शांतचित्त गुण) अनुसरणीय है और मोक्ष इन शांतचित्त क्रियाओं (इन सिद्धांतों से कार्यान्वित) का ही प्रतिफल है। भक्ति और प्रप्पति, जो गीता शास्त्र के सारतत्व है, के विषय में भी कहा गया है।
– अदियेन भगवती रामानुजदासी
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