१८.३५ – यया स्वप्नं भयं शोकं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।

पद पदार्थ

पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!
दुर्मेधा: – दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य
स्वप्नं मदं – मन, प्राण आदि के कर्मों जो स्वप्न, तंद्रा, क्षोभ आदि का कारण बनते हैं
भयं शोकं विषादं एव च – मन, प्राण आदि के कर्मों जो भय, दुःख, शोक आदि का कारण बनते हैं
यया न विमुञ्चति – जिस धृति से धारण करता है
सा धृतिः – वह धृति
तामसी – तमो गुण से उत्पन्न होती है

सरल अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र! जिस धृति से दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य मन, प्राण आदि के कर्मों को धारण करता है, जो स्वप्न, तंद्रा, क्षोभ आदि का कारण बनते हैं तथा मन, प्राण आदि के कर्मों को धारण करता है, जो भय, दुःख, शोक आदि का कारण बनते हैं, वह धृति तमो गुण से उत्पन्न होती है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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