१८.६१ – ईश्वर: सर्वभूतानाम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

<< अध्याय १८ श्लोक ६०

श्लोक

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन  तिष्ठति |
भ्रामयन्  सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||

पद पदार्थ

अर्जुन – हे अर्जुन!
ईश्वर: – वासुदेव जो सभी को नियंत्रित करते हैं
सर्व भूतानां हृद्देशे – सभी प्राणियों के हृदय में (जो ज्ञान का मूल है)
यन्त्रारूढानि – शरीररूपी यंत्र में जो प्रकृति का प्रभाव है
सर्वभूतानि – सभी प्राणीयों को
मायया – सत्व, रजस , तमस गुणों से परिपूर्ण इस माया (संसार) में
भ्रामयन् – उन्हें उन गुणों के अनुसार कार्य कराते
तिष्ठति -रहते हैं

सरल अनुवाद

हे अर्जुन! वासुदेव जो सभी को नियंत्रित करते हैं, इस शरीर नामक यंत्र में, जो प्रकृति  का  प्रभाव है,   सभी प्राणियों के हृदय में (जो ज्ञान का मूल है) स्थित,  उनको सत्व, रजस , तमस  आदि गुणों के अनुसार इस माया (संसार) में, जो उन गुणों से परिपूर्ण हैं, कर्म कराते रहते हैं ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

>> अध्याय १८ श्लोक ६२

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/18-61/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org