१८.६६ – सर्वधर्मान् परित्यज्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ||

पद पदार्थ

सर्व धर्मान्- सभी साधनों को
परित्यज्य – पूर्णतया त्याग करना
माम् एकम् – मुझे ही एकमात्र
शरणं – साधन के रूप में
व्रज – समझो
अहं – मैं
त्वा – तुम्हें
सर्वपापेभ्य:- सभी पापों से
मोक्षयिष्यामि – मुक्त करूँगा
मा शुच: – शोक मत करो

सरल अनुवाद

तुम सभी साधनों को पूर्णतया त्यागकर मुझे ही अपना एकमात्र साधन समझो , मैं तुम्हें सभी पापोंसे मुक्त करूँगा , शोक मत करो।

टिप्पणी: एम्पेरुमानार (श्री रामानुज) ने इस श्लोक की दो अलग-अलग तरह से व्याख्या की है। दोनों व्याख्याओं में, प्रपत्ति (समर्पण) को भक्ति योग का अंग (सहायक पहलू) माना गया है। उन्होंने इसे इस तरह से समझाया क्योंकि गीता भाष्य के श्रोता वे सभी हैं जो वेदान्त का पालन करते हैं। लेकिन अपने गद्य त्रयं (विशेष रूप से शरणागति गद्य) में, जो विशेष रूप से श्रीवैष्णव संप्रदाय के अनुयायियों के लिए लक्षित है, उन्होंने शरणागति का गूढ़ अर्थ भगवान को मुक्ति के एकमात्र साधन के रूप में स्वीकार करना बताया।

पहला स्पष्टीकरण

जब कृष्ण ने पिछले श्लोक में भक्ति योग की व्याख्या की, तो अर्जुन ने भक्ति योग करने की कठिनाई के बारे में सोचकर दुःखी होने लगा , क्योंकि अनगिनत पाप उसके लक्ष्य तक पहुँचने में बाधा बन रहे थे। इसलिए, कृष्ण कहते हैं “यदि तुम तीन प्रकार के (कर्तापन, स्वामित्व और फल ) त्याग के साथ कर्म, ज्ञान, भक्ति योग करते हो, और मुझे ऐसी पूजा के प्रेरक, पूजा का विषय और पूजा का भोक्ता मानते हो, और ऐसी पूजा करने में आने वाली बाधाओं को दूर करने के साधन के रूप में मुझे धारण करते हो, तो मैं तुम्हारे लिए उन बाधाओं को दूर कर दूँगा; शोक मत करो”।

दूसरा स्पष्टीकरण

जब कृष्ण ने पिछले श्लोक में भक्ति योग की व्याख्या की थी, तो यह स्पष्ट था कि भक्ति योग को आगे बढ़ाने में बाधाएँ थीं, जिससे अर्जुन के हृदय में दुःख हुआ। ऐसा इसलिए है, क्योंकि बाधाओं को दूर करने के लिए प्रायश्चित करना अनिवार्य है। प्रायश्चित करने में बहुत अधिक प्रयास को देखते हुए, अर्जुन शोक करने लगता है। कृष्ण कहते हैं, तुम उन अनुष्ठानों को छोड़ सकते हो जिन्हें प्रायश्चित के रूप में किया जाता है और उनके बदले मेरा ध्यान करो और मुझे समर्पण करो । मैं उन पापों को (उन अनुष्ठानों से कहीं अधिक शीघ्र) नष्ट कर दूँगा और इसलिए तुम्हें शोक करने की आवश्यकता नहीं है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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