२.४० – नेहाभिक्रम नाशोSस्ति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

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श्लोक

नेहाभिक्रम नाशोSस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥

पद पदार्थ

इह – कर्म योग में
अभिक्रमनाश: – शुरू किए गए प्रयासों में हानि
न अस्थि –  नहीं है 
(भले ही शुरुआत के बाद रोक दिया गया हो)
प्रत्यवाय: – दोष
न विद्यते–  नहीं है 
अस्य धर्मस्य – कर्म योग नाम के इस धर्म में
स्वल्पं अपि -थोड़ा सा प्रयास भी
महताः – बहुत बड़ा 
भयात – संसार के भय से  (बंधन)
त्रायते – संरक्षण करता है

सरल अनुवाद

इस कर्म योग में, प्रारम्भ किये गये प्रयत्नों में कोई हानि नहीं होती है। (भले ही आरम्भ करके रोक दिया जाए) कोई दोष नहीं है; कर्म योग नाम के इस धर्म में, थोड़ा प्रयास भी संसार (बंधन) के महान भय से रक्षा करेगा| 

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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