४.१२ – काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: |
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ||

पद पदार्थ

इह – (सभी) इस दुनिया में
कर्मणां – कर्मों के ( कार्य )
सिद्धिं – परिणाम
काङ्क्षन्त: – के इच्छुक
देवता: – सभी देवताओं को , इंद्र से लेकर
यजन्ते – पूजा करते हैं ( कर्मानुसार )

( यहाँ अधिक लोग नहीं हैं जो सांसारिक अभिलाषाओं के बिना मेरी पूजा करते हैं )
हि – क्योंकि
मानुषे लोके – इस मर्त्य परिमंडल में ( मनुष्यों से भरी )
कर्मजा – कर्म निमित्त
सिद्धि: – परिणाम ( जैसे संतान , गाय , अन्न इत्यादि )
क्षिप्रं – शीघ्र ही
भवति – प्राप्त होता है

सरल अनुवाद

इस मर्त्य परिमंडल में कर्म निमित्त परिणाम शीघ्र प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए इस दुनिया में कर्मों के परिणामों में इच्छुक सभी लोग, इंद्र से लेकर इत्यादि सभी देवताओं को अपने कर्मानुसार पूजा करते हैं | यहाँ अधिक लोग नहीं हैं जो सांसारिक अभिलाषाओं के बिना मेरी पूजा करते हैं |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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