४.२१ – निराशीर्यतचित्तात्मा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: |
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||

पद पदार्थ

निराशी: – कर्मफल के आसक्ति से मुक्त
यतचित्तात्मा – मन को संयम रखते हुए ( लौकिक विषयों के प्रति )
त्यक्त सर्व परिग्रह: – सामान्य वस्तुओं के स्वामित्व से मुक्त होकर
शारीरं – जब तक शरीरसंबंध है तब तक जिसे त्याग नहीं सकेंगे
कर्म केवलं – केवल कर्म को
कुर्वन् – करते हुए
किल्बिषम् – संसार ( भौतिक लोक )
न आप्नोति – नहीं प्राप्त करेगा

सरल अनुवाद

जब तक शरीरसंबंध है तब तक जिस कर्म को त्याग नहीं सकेंगे, जो केवल उस कर्म को, कर्मफल के आसक्ति से मुक्त होकर , मन का संयम रखते हुए ( लौकिक विषयों के प्रति ) और सामान्य वस्तुओं के स्वामित्व से मुक्त होकर, करता है,
वह संसार को ( भौतिक लोक ) नहीं प्राप्त करेगा |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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