४.२० – त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: |
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स: ||

पद पदार्थ

कर्म फलासङ्गं – कर्म के परिणाम में प्रीती
त्यक्त्वा – त्यागकर
नित्य तृप्त: – शाश्वत आत्मा में संतुष्ट होकर
निराश्रय: – अस्थायी देह को विश्वसनीय समझने से मुक्त होकर
( जो भी इस प्रकार अपना कर्म करता है )
स: – वह
कर्मणि – कर्मों में
अभिप्रवृत्त: अपि – सम्पूर्ण निष्‍ठा से व्यस्त होते हुए भी
किञ्चित् नैव करोति – माना जाता है कि उसने कोई कर्म नहीं किया है

सरल अनुवाद

जो भी कर्म के परिणाम में प्रीती को त्यागकर अपना कर्म करता है, शाश्वत आत्मा में संतुष्ट होकर तथा अस्थायी देह को विश्वसनीय समझने से मुक्त होकर, कर्मों में वह सम्पूर्ण निष्‍ठा से व्यस्त होते हुए भी , माना जाता है कि उसने कोई कर्म नहीं किया है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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