४.२२ – यदृच्छालाभसन्तुष्टो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

पद पदार्थ

यदृच्छा लाभ सन्तुष्ट: – जो कुछ भी उसे मिलता है उससे संतुष्ट रहना (अपने शरीर को बनाए रखने के लिए)
द्वन्द्वातीता : – जोड़ियों को सहन करना (सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी आदि के)
विमत्सर: – ईर्ष्या से मुक्त होना (दूसरों के प्रति)
सिध्दौ – सफलता में (जैसे युद्ध में जीत)
असिध्दौ – और असफलताओं में (उनमें)
सम:- समदर्शी होना
कृत्वा अपि – कर्म में लीन होना (बिना ज्ञान योग के साथ भी)
न निबध्यते – (संसार के इस बंधन में) नहीं बंधेगा 

सरल अनुवाद

यदि कोई अपने रास्ते में आने वाली हर वस्तु (अपने शरीर को बनाए रखने के लिए) से संतुष्ट है , जोड़ियों  (सुख-दुख, गर्मी-सर्दी आदि) को सहन कर , ईर्ष्या (दूसरों के प्रति) से मुक्त , सफलता और विफलता में समान भाव रखते हुए  कर्म में (यहां तक ​​कि बिना  ज्ञान योग के भी) लीन हो, ऐसा व्यक्ति (संसार के इस बंधन में) नहीं बंधेगा।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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