४.२३ – गतसङ्गस्य मुक्तस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥

पद पदार्थ

ज्ञानावस्थित चेतस: – जिसका हृदय पूरी तरह से आत्मज्ञान में लगा हुआ है
गतसङ्गस्य – (उसके फल स्वरूप) ) अन्य विषयों से अलग हो जाना
मुक्तस्य – (उसके फल स्वरूप) ऐसे अन्य विषयों से मुक्त हो जाना
यज्ञाय – कर्मों के लिए, जैसे यज्ञ  आदि
आचरतः – ऐसे कार्यों में लगे रहने वाला
कर्म – सभी पुण्य और पाप जो पहले संचित थे
समग्रं प्रविलीयते – बिना किसी निशान के नष्ट हो जाता है

सरल अनुवाद

वह , जिसका हृदय पूरी तरह से आत्मज्ञान (स्वयं के बारे में ज्ञान) में लगा हुआ है , (इसलिए) अन्य विषयों  से अलग हो रहा है ,और (इसलिए) ऐसे अन्य विषयों से मुक्त हो रहा है, जो यज्ञ  आदि के रूप के कर्मों में संलग्न है , उसके सभी पुण्य और पाप, जो पहले से संचित थे, बिना किसी निशान के नष्ट हो जाते हैं।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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