६.२७ – प्रशान्तमनसम् ह्येनम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

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श्लोक

प्रशान्तमनसं  ह्येनं  योगिनं  सुखं  उत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्

पद पदार्थ

प्रशान्त मनसं – मन को स्थिर रखना (जैसा पिछले श्लोक में कहा गया है, आत्मा में)
अकल्मषम् – (उसके परिणामस्वरूप) पापों से मुक्त होना
शान्त रजसं – (उसके परिणामस्वरूप) रजो गुण (वासना ) से छुटकारा पाना
ब्रह्म भूतं  – (उसके परिणामस्वरूप) स्वयं के वास्तविक प्रकृति में स्थित होना
योगिनं – वह जो आत्मयोग (आत्म-आनंद का योग) में लगा हुआ है
एनं- ऐसा व्यक्ति
उत्तमम् सुखं – आत्मानंद का सबसे बड़ा हर्ष
उपैति हि – उस तक पहुँचता है

सरल अनुवाद

जिसका मन स्वयं पर स्थिर है, जो पापों से मुक्त है, जो रजोगुण (वासना) से मुक्त है, जो स्वयं के वास्तविक स्वरूप में स्थित है और जो आत्मयोग (आत्म-आनंद का योग) में लगा हुआ है, आत्मानंद का सबसे बड़ा हर्ष उस तक पहुँचता है ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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