९.३१ – क्षिप्रं भवति धर्मात्मा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ९

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श्लोक

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ||

पद पदार्थ

(यद्यपि जो मेरी भक्ति में लगा है, उसका आचरण बुरा हो )
क्षिप्रं – शीघ्र ही
धर्मात्मा भवति – वह ( अपनी बाधाओं को दूर करके ) भक्ति योग में पूरी तरह से संलग्न हो जाता है
शश्वच्छान्तिं – बुरे आचरण का स्थायी उन्मूलन
निगच्छति – कर लेता है
कौन्तेय ! – हे कुंतीपुत्र !
” मे भक्त: – मेरा ( जो सर्वेश्वर हूँ ) भक्त
न प्रणश्यति – कभी नष्ट नहीं होता “

( यह सिद्धांत )
प्रतिजानीहि – (तुम स्वयं ) घोषणा करो

सरल अनुवाद

(यद्यपि जो मेरी भक्ति में लगा रहता है, उसका आचरण बुरा हो ) , शीघ्र ही वह ( अपनी बाधाओं को दूर करके ) भक्ति योग में पूरी तरह से संलग्न हो जाता है | वह बुरे आचरण का स्थायी उन्मूलन कर लेता है | हे कुंतीपुत्र ! तुम स्वयं घोषणा करो , ” मेरा ( जो सर्वेश्वर हूँ ) भक्त कभी नष्ट नहीं होता ” |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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