९.६ – यथाऽऽकाशस्थितो नित्यम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ९

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श्लोक

यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् |
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय
//

पद पदार्थ

सर्वत्रग: – सर्वत्र व्याप्त
महान् – महान
नित्यं आकाशस्थित: – सदैव आकाश (जो किसी भी वस्तु का सहारा नहीं है )में रहता है
वायु: -हवा
यथा – मुझे ही विश्राम स्थल और नियंत्रक के रूप में रखती है
तथा – उसी प्रकार
सर्वाणि भूतानि – सभी वस्तुएँ
मत्स्थानी इति – मुझे विश्राम स्थल और नियंत्रक के रूप में रखें है
उपधारय – जानो

सरल अनुवाद

यह जान लो कि जैसे महान हवा ,सर्वत्र व्याप्त, और  सदैव आकाश (जो किसी भी वस्तु का सहारा नहीं है) में स्थित रहने वाली और मुझे ही विश्राम-स्थान और नियंता के रूप में रखती है, उसी प्रकार सभी वस्तुओं का विश्राम-स्थान और नियंत्रक  मैं ही  हूँ ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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