१८.५२ – विविक्तसेवी लघ्वाशी

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

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श्लोक

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस: |
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ||

पद पदार्थ

विविक्तसेवी – एकांत स्थान पर रहना (जहाँ ध्यान के लिए कोई बाधा न हो)
लघ्वाशी – परिमित आहार लेना
यत वाक्काय मानस: – मन, वाणी और शरीर को ध्यान में लगाना
नित्यं ध्यान योग पर: – अंत तक प्रतिदिन ध्यान योग का अभ्यास करना
वैराग्यं समुपाश्रितः – वैराग्य का पालन करना (आत्मा से असंबंधित विषयों में)

सरल अनुवाद

… एकांत स्थान पर रहना (जहाँ ध्यान के लिए कोई बाधा न हो),परिमित आहार लेना, मन, वाणी और शरीर को ध्यान में लगाना, अंत तक प्रतिदिन ध्यान योग का अभ्यास करना, (आत्मा से असंबंधित विषयों में) वैराग्य का पालन करना ….. 

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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