१८.५३ – अहंकारं बलं दर्पम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

<< अध्याय १८ श्लोक ५२

श्लोक

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ||

पद पदार्थ

अहंकार – शरीर को आत्मा मानना ​​
बलं – ऐसे अहंकार को पोषित करने वाले संस्कारों की प्रबलता

(जिसके परिणामस्वरूप)
दर्पं – अभिमान
कामं – लोभ
क्रोधं – क्रोध
परिग्रहम् – सगे-संबंधी
विमुच्य – त्याग कर
निर्मम: – किसी भी ऐसी वस्तु पर अधिकार न रखना जो उसकी अपनी न हो
शान्त: – केवल आत्म-साक्षात्कार को ही आनन्ददायक मानना
(जो ध्यान योग का अभ्यास करता है)
ब्रह्म भूयाय कल्पते – वास्तव में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है

सरल अनुवाद

…शरीर को आत्मा मानना ​​तथा अहंकार को पोषित करने वाले संस्कारों की प्रबलता, (तथा उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले) अभिमान, लोभ, क्रोध और सगे-संबंधियों को त्यागकर, अपने से परे किसी भी वस्तु पर अधिकार न रखते हुए  , केवल आत्म-साक्षात्कार को ही आनन्ददायक मानकर, जो ध्यान योग का अभ्यास करता है, उसे वास्तव में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता  है | 

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

>> अध्याय १८ श्लोक ५४

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/18-53/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org