श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ||
पद पदार्थ
अहंकार – शरीर को आत्मा मानना
बलं – ऐसे अहंकार को पोषित करने वाले संस्कारों की प्रबलता
(जिसके परिणामस्वरूप)
दर्पं – अभिमान
कामं – लोभ
क्रोधं – क्रोध
परिग्रहम् – सगे-संबंधी
विमुच्य – त्याग कर
निर्मम: – किसी भी ऐसी वस्तु पर अधिकार न रखना जो उसकी अपनी न हो
शान्त: – केवल आत्म-साक्षात्कार को ही आनन्ददायक मानना
(जो ध्यान योग का अभ्यास करता है)
ब्रह्म भूयाय कल्पते – वास्तव में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है
सरल अनुवाद
…शरीर को आत्मा मानना तथा अहंकार को पोषित करने वाले संस्कारों की प्रबलता, (तथा उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले) अभिमान, लोभ, क्रोध और सगे-संबंधियों को त्यागकर, अपने से परे किसी भी वस्तु पर अधिकार न रखते हुए , केवल आत्म-साक्षात्कार को ही आनन्ददायक मानकर, जो ध्यान योग का अभ्यास करता है, उसे वास्तव में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है |
अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी
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