२.५८ – यदा संहरते चायम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<< अध्याय २ श्लोक ५

श्लोक

यदा संहरते चायम् कूर्मोSङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य: तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

पद पदार्थ

यदा  – जब
अयम – यह व्यक्ति
इन्द्रियाणी – इन्द्रियों  (जो सांसारिक सुखों तक पहुँचने का प्रयास करते हैं)
कूर्म: अंङ्गानी इव – कछुए के अंगों की तरह (जो अंदर खींचे हुए हैं)
सर्वशः- सभी प्रकार से
इन्द्रियार्थेभ्य:- [सांसारिक सुखों पर आधारित]  (ध्वनि) जैसे पहलुओं से
संहरते – स्वयं को भीतर की ओर खीचता है
तस्य – उसका
प्रज्ञा – ज्ञान
प्रतिष्ठिता – दृढ़ता से स्थित (वह भी एक स्थित प्रज्ञ है)।

सरल अनुवाद

जब यह व्यक्ति सभी तरीकों से , कछुए के अंगों (जो अंदर खींचे जाते हैं) की तरह [सांसारिक सुखों पर आधारित] (ध्वनि) जैसे ] पहलुओं से खुद को अंदर की ओर खींचता है, तो उसका ज्ञान दृढ़ता से स्थित रहता है (वह भी एक स्थित प्रज्ञ है)।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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