२.६७ – इन्द्रियाणां हि चरतां

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<< अध्याय २ श्लोक ६६

श्लोक

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोSनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥

पद पदार्थ

चरतां – सांसारिक सुखों का (इच्छानुसार) आनंद लेना 
इन्द्रियाणां – इन्द्रियाँ 
यत् मन:- वह मन

अनुविधीयते – (मनुष्य द्वारा) पालन करने के लिए बनाया गया
वह – वह मन
अस्य – ऐसे आदमी का
प्रज्ञां – ज्ञान (स्वयं के बारे में)
वायु:- वायु (विपरीत दिशा से आने वाली)
अम्भसि नावमिव – पानी में एक जहाज की तरह (विपरीत दिशा में खींचा जा रहा है)
हरति हि – क्या यह सांसारिक सुखों की ओर नहीं खींच जा रहा है?

सरल अनुवाद

जो मन इन्द्रियों को सांसारिक सुखों में लगाता है, क्या वह मन, पानी में (विपरीत दिशा में खींचे जाने वाले) जहाज की तरह , सांसारिक सुसांसारिक सुखों की ओर नहीं खींच जा रहा है ?

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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