श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
पद पदार्थ
पुरुषर्षभ – हे नरपति !
येते – ऐसे प्राकृतिक सुख और दुःख के सम्बन्ध
समदुःखसुखं – सुख और दुःख को समान भाव से सोचना
धीरं – निर्भय रहना
यं पुरुषं – वो आदमी
न व्यथयन्ति – मानसिक ताकत न खोये
स: – वही आदमी
अमृतत्वाय कल्पते – मुक्त होने की योग्यता प्राप्त करता है
सरल अनुवाद
हे नरपति ! वो आदमी जो ऐसे प्राकृतिक सुख और दुःख के सम्बन्धों के प्रति समान है , जो निर्भय तथा मानसिक ताकत न खोये, वही आदमी मुक्त होने की योग्यता प्राप्त करता है |
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/2-15/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org