श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
पद पदार्थ
आत्मना – मन ( जो सांसारिक सुखों से विरक्त हो ) के साथ
आत्मानं – स्वयं
उद्धरेता – उन्नति करें
[ आत्मना – मन जो सांसारिक सुखों से जुड़ा हो ] आत्मानं – स्वयं
न अवसादयेत् – स्वयं को नीचे धकेलना नहीं चाहिए
आत्मा एव – केवल मन ( जो सांसारिक सुखों से विरक्त हो )
आत्मन: – स्वयं के लिए
बन्धु: – संबंधी / मित्र
आत्मा एव – केवल मन (जो सांसारिक सुखों में संलग्न हो )
आत्मन: – स्वयं के लिए
रिपु – शत्रु
सरल अनुवाद
व्यक्ति को स्वयं को, उस मन से ऊपर उठाना चाहिए जो सांसारिक सुखों से विरक्त है ; सांसारिक सुखों से जुड़े मन से व्यक्ति को अपने आप को नीचे नहीं धकेलना चाहिए ; केवल मन ( जब सांसारिक सुखों से विरक्त हो ) ही किसी का संबंधी / मित्र है और शत्रु (जब सांसारिक सुखों में संलग्न हो ) भी वही है |
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/6-5/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org