श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो: एवं अन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।
पद पदार्थ
एवं – जैसा कि इस अध्याय में बताया गया है
क्षेत्र क्षेत्रज्ञयो: अन्तरं – क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के बीच के अंतर
भूत प्रकृति मोक्षं च – अमानित्व आदि गुणों जो विभिन्न प्राणियों के रूप में विद्यमान मूल पदार्थ से स्वयं को मुक्त करने के साधन हैं
ज्ञान चक्षुषा – ज्ञान-दृष्टि (जो शरीर और आत्मा में भेद करती है)
ये विदु: – जो जानते हैं
ते – वे लोग
परं यान्ति – दिव्य आत्मा (जो सांसारिक बंधनों से मुक्त है) को प्राप्त करते हैं
सरल अनुवाद
जो लोग क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के बीच के अंतर को तथा अमानित्व आदि गुणों को जानते हैं, जो ज्ञान-दृष्टि (जो शरीर और आत्मा में भेद करती है) के द्वारा विभिन्न प्राणियों के रूप में विद्यमान मूल पदार्थ से स्वयं को मुक्त करने के साधन हैं, जैसा कि इस अध्याय में बताया गया है, वे लोग दिव्य आत्मा (जो सांसारिक बंधनों से मुक्त है) को प्राप्त करते हैं।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/13-34/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org