श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् |
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस: ||
पद पदार्थ
यतन्त: योगिन: च – जो योगी (मेरे प्रति समर्पण करने के लिए कर्मयोग जैसे ) प्रयासों में लगे रहते हैं
आत्मानि अवस्थितम् – अपने शरीर में स्थित
एनं – इस जीवात्मा
पश्यन्ति – (योग की आँखों से) देखते हैं
यतन्त: अपि – यद्यपि वे (मेरी शरण में आए बिना) प्रयत्न करते हैं
अकृतात्मान: – परन्तु मन में पवित्रता न होने के कारण (और इस कारण)
अचेतस: – हृदय में (आत्मा को देखने की) इच्छा न होने के कारण
एनं न पश्यन्ति – आत्मा को यथार्थ रूप से नहीं देख पाते
सरल अनुवाद
जो योगी (मेरे प्रति समर्पण करने के लिए कर्मयोग जैसे ) प्रयासों में लगे रहते हैं, वे (योग की आँखों से) अपने शरीर में स्थित इस जीवात्मा को देखते हैं; यद्यपि वे (मेरी शरण में आए बिना) प्रयत्न करते हैं, परन्तु मन में पवित्रता न होने के कारण (और इस कारण) हृदय में आत्मा को देखने की इच्छा न होने के कारण, वे आत्मा को यथार्थ रूप से नहीं देख पाते ।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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