१६.२ – अहिंसा सत्यम् अक्रोध:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १६

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श्लोक

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।

पद पदार्थ

अहिंसा – किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना
सत्यं – सत्य बोलना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो
अक्रोध: – क्रोध (जिससे दूसरों को हानि पहुँचती है) न करना
त्याग: – त्यागना (उन पहलुओं का जो स्वयं के लिए कोई कल्याण नहीं पहुँचाते)
शान्ति: – इन्द्रियों (मन को छोड़कर) को विषय-भोगों में लिप्त न होने के लिए प्रशिक्षित करना
अपैशुनम् – निन्दा (जिससे दूसरों को हानि पहुँचती है) से दूर रहना
भूतेषु दया – अन्य प्राणियों के कष्टों को सहन न कर पाना
अलोलुप्त्वं – सांसारिक विषयों से विरक्त रहना
मार्दवं – नम्र होना (जिससे सज्जन व्यक्ति आसानी से आपके निकट आ सकें)
ह्री: – (हानिकारक कार्यों में लिप्त होने से) लज्जित होना
अचापलम् – उन पहलुओं की भी इच्छा न करना जो पहुँच में हैं

सरल अनुवाद

….किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना, सत्य बोलना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, क्रोध (जिससे दूसरों को हानि पहुँचती है) न करना, त्यागना (उन पहलुओं का जो स्वयं के लिए कोई कल्याण नहीं पहुँचाते), इन्द्रियों (मन को छोड़कर) को विषय-भोगों में लिप्त न होने के लिए प्रशिक्षित करना, निन्दा (जिससे दूसरों को हानि पहुँचती है) से दूर रहना , अन्य प्राणियों के कष्टों को सहन न कर पाना, सांसारिक विषयों से विरक्त रहना, नम्र होना (जिससे सज्जन व्यक्ति आसानी से आपके निकट आ सकें), (हानिकारक कार्यों में लिप्त होने से) लज्जित होना, उन पहलुओं की भी इच्छा न करना जो पहुँच में हैं….

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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