१०.३ – यो माम् अजम् अनादिं च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १०

<< अध्याय १० श्लोक २

श्लोक

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु
सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

पद पदार्थ

मर्त्येषु असम्मूढः य: – मनुष्यों में से एक जो यह सोचकर हतप्रभ नहीं है कि मैं अन्य पुरुषों के समान हूँ
मां – मुझे
अजं – जन्म न लेना
( वो भी ) अनादिं – जिसका अनादिकाल से कोई जन्म नहीं हो
लोकमहेश्वरं च – उन सभी के भगवान जिनको इस दुनिया के स्वामी माना जाता है
वेत्ति – जानता है
स: – वह
सर्वपापैः – सभी पाप ( जो भक्ति के विकास में बाधक हैं)
प्रमुच्यते – से मुक्त हो जाता है

सरल अनुवाद

मनुष्यों में से एक, जो यह सोचकर हतप्रभ नहीं है कि मैं अन्य पुरुषों के समान हूँ और जानता है कि मैं जन्म नहीं लेता, वो भी जिसका अनादिकाल से कोई जन्म नहीं हो और उन सभी के भगवान हूँ जिनको इस दुनिया के स्वामी माना जाता है ,सभी पाप ( जो भक्ति के विकास में बाधक हैं) से मुक्त हो जाता है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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