१०.३२ – सर्गाणाम् आदि: अन्त: च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १०

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श्लोक

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥

पद पदार्थ

अर्जुन – हे अर्जुन !
सर्गाणां – निर्मित संस्थाओं में
आदि: – रचयिता (कारण)
अन्त: – विध्वंसक (अंत में)
मध्यं च – जो (सृष्टि और विनाश के बीच) कायम रखते हैं
अहम् एव – मैं हूँ
विद्यानां – विद्या में
अध्यात्म विद्या – आध्यात्मिक विद्या, जो स्वयं/आत्मा और परमात्मा के बारे में ज्ञान है
अहम् एव – मैं हूँ
प्रवदतां – उन चर्चा करने वालों ( जो तीन प्रकार के चर्चा करते हैं – जल्प , वितंड और वाद ) में
अहम् – मैं
वादः – तर्क हूँ

सरल अनुवाद

हे अर्जुन ! निर्मित संस्थाओं में, मैं रचयिता (कारण) हूँ ; विध्वंसक (अंत में) हूँ और जो (सृष्टि और विनाश के बीच) कायम रखते हैं ; विद्या में , मैं आध्यात्मिक विद्या हूँ जो स्वयं/आत्मा और परमात्मा के बारे में ज्ञान है; उन चर्चा करने वालों ( जो तीन प्रकार के चर्चा करते हैं – जल्प , वितंड और वाद ) में, मैं तर्क (जिसका उद्देश्य सत्य को स्थापित करना है) हूँ |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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