१०.५ – अहिंसा समता तुष्टि:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १०

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श्लोक

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ||

पद पदार्थ

अहिंसा – दूसरों के दुःख का कारण नहीं होना
समता – (स्वयं और दूसरों के संबंध में आय/व्यय के विषयों में )संतुलित दिमाग के साथ
तुष्टि: – (किसी भी आत्मा को देखकर) हर्षित होना
तप: – भौतिक सुखों से निग्रह रहना , तपस्या में संलग्न होना (जिनका उल्लेख शास्त्रों में किया गया है)
दानं – अपनी आनंददायक वस्तुएँ दूसरों को देना
यश: – अच्छे गुणों के लिए प्रसिद्ध होना
अयश: – दोष रखने के लिए प्रसिद्ध होना
भूतानां पृथग्विधा भावा: – सभी प्राणियों के मन की सभी अवस्थाएँ
मत्त एव भवन्ति – मेरे संकल्प के कारण घटित हो रहे हैं

सरल अनुवाद

…दूसरों के दुःख का कारण नहीं होना, (स्वयं और दूसरों के संबंध में आय/व्यय के विषयों में )संतुलित दिमाग के साथ, (किसी भी आत्मा को देखकर) हर्षित होना, भौतिक सुखों से निग्रह रहना , तपस्या में संलग्न होना (जिनका उल्लेख शास्त्रों में किया गया है), अपनी आनंददायक वस्तुएँ दूसरों को देना, अच्छे गुणों के लिए प्रसिद्ध होना, दोष रखने के लिए प्रसिद्ध होना – सभी प्राणियों के मन की यह सभी अवस्थाएँ मेरे संकल्प के कारण घटित हो रहे हैं |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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