११.१७ – किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ११

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श्लोक

किरीटिनं  गदिनं चक्रिणं  च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् | 
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्षं  समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ||

पद पदार्थ

तेजोराशिं – महान उज्‍जवलता का एक पुंज
सर्वत: दीप्तिमन्तम् – सभी ओर कांति से युक्त
समन्ताद् दुर्निरीक्षं – प्रत्येक अंग को देखना कठिन है
दीप्तालार्कद्युतिम् – जिसकी किरणें धधकती हुई अग्नि और सूर्य के समान हैं
अप्रमेयम् – अपरिमेय
त्वां – तुम
किरीटिनं – मुकुट धारण करते हुए
चक्रिणं च – चक्र धारण करते हुए
गदिनं – गदा धारण करते हुए
पश्यामि – मैं देख रहा हूँ

सरल अनुवाद

मैं तुम्हें, महान उज्‍जवलता  का एक पुंज, सभी ओर कांति से युक्त, प्रत्येक अंग को देखने में  कठिन, धधकती हुई अग्नि और सूर्य के समान  किरणों से युक्त, अपरिमेय, मुकुट, चक्र और गदा धारण करते हुए देख रहा हूँ ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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