११.१८ – त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ११

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श्लोक

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।

पद पदार्थ

वेदितव्यं परमं अक्षरं – तुम सर्वोच्च अक्षरम् (अविनाशी) के रूप में जाना जाते हो जैसे उपनिषदों में कहा गया है
अस्य विश्वस्य – इस संसार के लिए
परं निधानम् – तुम ही आश्रय हो
त्वम् – तुम
अव्यय:- अविनाशी (सभी प्रकार से)
त्वम् – तुम
शाश्वत धर्म गोप्ता – शाश्वत वैदिक धर्म के रक्षक
त्वम् – तुम
सनातन पुरुष – आदि भगवान (जिसका उल्लिखित उपनिषदों में किया गया है)
त्वम् – तुम
मे मत:- जैसे मेरे द्वारा समझा गया है (इस प्रकार)

सरल अनुवाद

तुम  उपनिषदों में वर्णित, सर्वोच्च अक्षरम (अविनाशी) के रूप में जाने जाते हो ; तुम  इस संसार के आश्रय हो ;तुम  अविनाशी हो; तुम शाश्वत वैदिक धर्म के रक्षक हो ; तुम आदि भगवान हो  (जिसका उल्लिखित उपनिषदों में किया गया है); जैसे मेरे द्वारा (इस प्रकार) समझा गया  है ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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