श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यम् अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।
पद पदार्थ
अनादि मध्य अन्तम् – जिसका कोई प्रारंभ, मध्य और अंत नहीं है
अनन्त वीर्यम् – असीमित ऊर्जा से युक्त
अनन्त बाहुम् – असीमित भुजाओं से युक्त
शशि सूर्य नेत्रम् – दिव्य आँखें जो चंद्रमा की तरह शीतल और सूरज की तरह गर्म हैं
दीप्त हुताश वक्त्रम् – ऐसे मुँह जो पूर्ण जलप्रलय के समय धधकती आग की तरह सब कुछ निगल रहे हैं
स्व तेजसा – तुम्हारी कान्ति से
इदं विश्वम् तपन्तं – संसार को तपित करना
त्वा – तुम्हें
पश्यामि – मैं देख रहा हूँ
सरल अनुवाद
मैं तुम्हें, आदि, मध्य और अंत से रहित, असीमित ऊर्जा से युक्त, असीमित भुजाओं से युक्त, दिव्य आँखें जो चंद्रमा की तरह शीतल और सूरज की तरह गर्म, महाप्रलय के समय धधकती आग की तरह सब कुछ निगलने वाले मुँह और अपने कान्ति से सारे संसार को तपित करते हुए देख रहा हूँ |
अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी
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