११.२० – द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ११

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श्लोक

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।

पद पदार्थ

द्यावापृथिव्यो: इदम् अन्तरं – उच्च लोकों और निम्न लोकों के बीच का स्थान
सर्वा : दिश:च – सभी दिशाएँ
त्वया एकेन – केवल तुम्हारे द्वारा
व्याप्तम् हि – व्याप्त नहीं है?
महात्मन् – हे असीमित इच्छा वाले!
तव – तुम्हारा
इदम् उग्रम् अद्भुतं रूपं दृष्ट्वा – इस अद्भुत उग्र दिव्य रूप को देखकर
लोक त्रयम् – तीन प्रकार के लोग [अनुकूल, प्रतिकूल और उदासीन]
प्रव्यथितम् – भयभीत हो गए हैं

सरल अनुवाद

क्या उच्च लोकों और निम्न लोकों के बीच का स्थान और सभी दिशाएँ केवल तुम्हारे  द्वारा ही व्याप्त नहीं हैं? हे असीमित इच्छा वाले! तुम्हारे  इस अद्भुत उग्र दिव्य रूप को देखकर इस संसार के तीन प्रकार के (अनुकूल, प्रतिकूल और उदासीन) लोग, भयभीत हो गए हैं।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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