११.५४ – भक्त्या त्वनन्यया शक्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ११

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श्लोक

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।

पद पदार्थ

परंतप! अर्जुन! – हे शत्रुओं को पीड़ा पहुँचाने वाले अर्जुन!
अहम् – मैं
अनन्यया भक्त्या तु – केवल स्वयं प्रयोजन भक्ति (निस्वार्थ अनन्य भक्ति) के द्वारा
एवं विध: – इस प्रकार
तत्त्वेन – वास्तव में
ज्ञातुं – (शास्त्र के माध्यम से) जानना
द्रष्टुं च – देखना
प्रवेष्टुं च – प्राप्त करना
शक्य: – संभव है

सरल अनुवाद

हे शत्रुओं को पीड़ा पहुँचाने वाले अर्जुन! इस प्रकार वास्तव में (शास्त्र के माध्यम से) मुझे जानना, देखना और प्राप्त करना केवल स्वयं प्रयोजन भक्ति (निस्वार्थ अनन्य भक्ति) के द्वारा संभव है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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