१२.१७ – यो न हृष्यति न द्वेष्टि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १२

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श्लोक

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति |
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् य: स मे प्रिय: ||

पद पदार्थ

य: न हृष्यति – वह कर्म योग निष्ठ (कर्म योग अभ्यासी) जो (सुखद पहलुओं को देखकर) आनंदित नहीं होता
न द्वेष्टि – जो (अप्रिय पहलुओं) से घृणा नहीं करता
न शोचति – चिंता नहीं करता (सुखद पहलुओं को खोने पर)
न काङ्क्षति – इच्छा नहीं करता (नए सुखद पहलुओं को प्राप्त करने के लिए)
य:- जो
शुभाशुभ: परित्यागी – पुण्य और पाप कर्मों को छोड़ना
भक्तिमान् – मेरे प्रति प्रेम करता है
स:- वह
मे प्रिय:- मुझे प्रिय है

सरल अनुवाद

वह कर्मयोग निष्ठ (कर्म योग अभ्यासी) जो (सुखद पहलुओं को देखकर) आनंदित नहीं होता, जो (अप्रिय पहलुओं को देखकर) घृणा नहीं करता, जो (सुखद पहलुओं को खोने पर) चिंता नहीं करता, जो (नए सुखद पहलुओं को प्राप्त करने की) इच्छा नहीं करता , जो पुण्य और पाप कर्मों को छोड़कर मेरे प्रति प्रेम करता है, वह मुझे प्रिय है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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