श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।
पद पदार्थ
सर्वत्र – सभी शरीरों (जैसे कि देव , मनुष्य, तिर्यक (पशु) और स्थावर (पौधे)) में
समवस्थितम् ईश्वरम् – आत्मा, जो स्वामी, आधार और नियंता है (प्रत्येक शरीर में)
समं पश्यन् – समान रूप से देखता है (जैसे पहले समझाया गया था )
आत्मना – अपने हृदय के माध्यम से
आत्मानं – स्वयं
न हिनस्ति हि – क्या वह स्वयं की नष्ट नहीं बल्कि रक्षा करता है ?
तत: – इस समदृष्टि के माध्यम से
परां गतिं – आत्म-साक्षात्कार के उच्च लक्ष्य
याति हि – क्या वह प्राप्त नहीं कर रहा है ?
सरल अनुवाद
क्या वह, जो सभी शरीरों (जैसे कि देव , मनुष्य , तिर्यक (पशु) और स्थावर (पौधे)) में आत्मा, जो स्वामी , आधार और नियंता है (प्रत्येक शरीर में), को समान रूप से देखता है, अपने हृदय के माध्यम से स्वयं की नष्ट नहीं बल्कि रक्षा करता है ? क्या वह इस समदृष्टि के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार के उच्च लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर रहा है?
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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