१४.२० – गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १४

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श्लोक

गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान्   |
जन्ममृत्युजरादु:खै: विमुक्तोऽमृतम् अश्नुते  ||

पद पदार्थ

देही – यह आत्मा जो शरीर के साथ है
देह समुद्भवान् – शरीर जो प्रकृति (पदार्थ) का रूपांतर है
एतान् – ये
त्रीन् – तीन गुण
अतीत्य – पार करना (और स्वयं को देखना जो पदार्थ से भिन्न है और ज्ञान का अवतार है)
जन्म मृत्यु जरा दु:खै: विमुक्त: – जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा आदि दुःखों से मुक्त होना
अमृतं अश्नुते – अमर आत्मा का आनंद लेता है

सरल अनुवाद

जब यह आत्मा जिसका शरीर प्रकृति (पदार्थ) का रूपांतर है, इस शरीर में उपस्थित इन तीन गुणों को पार कर जाता है (और स्वयं को देखता है जो पदार्थ से भिन्न है और ज्ञान का अवतार है), तो वह, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा आदि दुःखों से मुक्त होकर अमर आत्मा का आनंद लेता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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