१४.९ – सत्त्वं सुखे सञ्जयति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १४

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श्लोक

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।

पद पदार्थ

भारत – हे भरतवंशी!
सत्त्वं – सत्व गुण
सुखे सञ्जयति – मुख्यतः आनन्द में आसक्ति उत्पन्न करता है
रजः – रजस (राग ) की गुणवत्ता
कर्मणि (सञ्जयति) – मुख्यतः कर्मों में आसक्ति उत्पन्न करता है
तमः तु – तमस (अज्ञान) का गुण
ज्ञानम् आवृत्य – उस ज्ञान को छिपाके जो वस्तुओं को वास्तविक रूप में समझने में मदद करता है
प्रमादे सञ्जयति उत – लापरवाही के माध्यम से (विपरीत ज्ञान उत्पन्न करके) निषिद्ध कर्मों में (मुख्य रूप से) आसक्ति उत्पन्न करता है

सरल अनुवाद

हे भरतवंशी! सत्व गुण मुख्यतः आनन्द में आसक्ति उत्पन्न करता है; रजस (राग ) की गुणवत्ता मुख्यतः कर्मों में आसक्ति उत्पन्न करता है; और तमस (अज्ञान) का गुण, उस ज्ञान को छिपाके जो वस्तुओं को वास्तविक रूप में समझने में मदद करता है, मुख्य रूप से लापरवाही के माध्यम से (विपरीत ज्ञान उत्पन्न करके) निषिद्ध कर्मों में आसक्ति उत्पन्न करता है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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