१५.१५ – सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १५

<< अध्याय १५ श्लोक १४

श्लोक

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||

पद पदार्थ

अहम् – मैं
सर्वस्य च – समस्त प्राणियों के
हृदि – हृदय में
सन्निविष्ट: – आत्मा के रूप में प्रवेश कर, वहीं निवास करता हूँ

(सभी के )

स्मृति: – स्मृति
ज्ञानं – किसी भी वस्तु को पहचानने का ज्ञान
अपोहनं च – विस्मृति
मत्त: एव – मुझसे ही उत्पन्न होती है
सर्वै: वेदै: च – समस्त वेदों से
अहम् एव – मैं ही
वेद्य: – जाना जाता हूँ
वेदान्त कृत् – वेदों के विधान के फल का दाता
वेद वित् च – वेदों का ज्ञाता
अहम् एव – मैं ही हूँ

सरल अनुवाद

मैं आत्मा के रूप में समस्त प्राणियों के हृदय में प्रवेश कर, वहीं निवास करता हूँ; स्मृति, किसी भी वस्तु को पहचानने का ज्ञान और विस्मृति मुझसे ही उत्पन्न होती है; मैं ही समस्त वेदों से जाना जाता हूँ; मैं ही वेदों के विधान के फल का दाता और वेदों का ज्ञाता हूँ।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

>> अध्याय १५ श्लोक १६

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/15-15/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org