१५.१७ – उत्तम: पुरुषस्त्वन्य:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १५

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श्लोक

उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ||

पद पदार्थ

य: तु – वह जो
लोकत्रयं – तीन प्रकार की सत्ताओं अर्थात अचित (पदार्थ), बद्ध जीवात्मा (बंधी हुई आत्माएँ) और मुक्तात्मा (मुक्त आत्माएँ)
आविश्य – व्याप्त
बिभर्ति – उनका समर्थन
(वह) अव्यय: – अविनाशी
ईश्वर: – नियंत्रक
परमात्मा इति उदाहृत: – जिसे (शास्त्र से) परमात्मा के रूप में जाना जाता है
उत्तम: पुरुष: – परम पुरुष है (इन कारणों से)
अन्य: – (पूर्व में वर्णित क्षर और अक्षर पुरुषों से) भिन्न है

सरल अनुवाद

लेकिन वह जो तीन प्रकार की सत्ताओं अर्थात अचित (पदार्थ), बद्ध जीवात्मा (बंधी हुई आत्माएँ) और मुक्तात्मा (मुक्त आत्माएँ) में व्याप्त है और उनका समर्थन करता है, जो अविनाशी है और नियंत्रक है, जिसे (शास्त्र से) परमात्मा के रूप में जाना जाता है, वही परम पुरुष है (इन कारणों से) और (पूर्व में वर्णित क्षर और अक्षर पुरुषों से) भिन्न है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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