१६.४ – दम्भो दर्पोऽभिमानश्च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १६

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श्लोक

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।

पद पदार्थ

पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!
आसुरीं सम्पदम् अभिजातस्य – जिनके पास असुरों का धन है (अर्थात भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करना)
दम्भ: – प्रसिद्धि पाने के लिए धर्म का पालन (धर्मी होने का) करने का गुण
दर्प: – (इन्द्रिय सुख भोगने के कारण उत्पन्न) अभिमान
अभिमान: च – महान अहंकार
क्रोधः – क्रोध (जो दूसरों को हानि पहुँचाता है)
पारुष्यं – कठोरता (जो सज्जन लोगों को परेशान करता है)
अज्ञानं – अज्ञान (सत्य को समझने में तथा क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए)
(भवन्ति – विद्यमान हैं)

सरल अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र! जिनके पास असुरों का धन है (अर्थात भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करना), उनमें प्रसिद्धि पाने के लिए धर्म का पालन (धर्मी होने का) करने का गुण, (इन्द्रिय सुख भोगने के कारण उत्पन्न) अभिमान , महान अहंकार, क्रोध (जो दूसरों को हानि पहुँचाता है), कठोरता (जो सज्जन लोगों को परेशान करता है) और अज्ञान (सत्य को समझने में तथा क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए) जैसे गुण विद्यमान हैं।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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