१७.१६ – मनःप्रसादः सौम्यत्वं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १७

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श्लोक

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।

पद पदार्थ

मनः प्रसादः – मन को साफ और क्रोध आदि से रहित रखना
सौम्यत्वं – दूसरों के हित के बारे में सोचना
मौनं – मन के माध्यम से वाणी पर नियंत्रण रखना
आत्म विनिग्रहः – मन को सांसारिक विषयों से रोककर उपयुक्त पहलुओं के ध्यान में लगाना
भाव संशुद्धि: – आत्मा के अतिरिक्त किसी भी विचार से रहित रहना
इति एतत् – ये सभी
मानसं तप: – मन की तपस्या
उच्यते – कहलाते हैं

सरल अनुवाद

मन को साफ और क्रोध आदि से रहित रखना, दूसरों के हित के बारे में सोचना, मन के माध्यम से वाणी पर नियंत्रण रखना, मन को सांसारिक विषयों से रोककर उपयुक्त पहलुओं के ध्यान में लगाना, आत्मा के अतिरिक्त किसी भी विचार से रहित रहना, ये सभी मन की तपस्या कहलाते हैं।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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