१७.७ – आहारस् त्वपि सर्वस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १७

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श्लोक

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: |
यज्ञस्तपस्तथा  दानं तेषां  भेदमिमं श्रुणु ||

पद पदार्थ

सर्वस्य – सभी जीवों के लिए
आहार: अपि – भोजन भी
त्रिविध: तु – तीन श्रेणियों (सत्व, रजस और तमस) के आधार पर
प्रिय: भवति – प्रिय है
तथा – वैसे ही
यज्ञ: – यज्ञ ( भी तीन श्रेणियों के होते हैं);
तप: -तपस्या (भी तीन श्रेणियों के होते हैं);
दानं – दान (भी तीन श्रेणियों के होते हैं);
तेषां – भोजन, यज्ञ, तपस्या और दान, उनका
इमं भेदं – विभिन्नताएँ (सत्व आदि गुणों पर आधारित)
श्रुणु – सुनो (मुझसे)

सरल अनुवाद

सभी प्राणियों के लिए भोजन भी तीन श्रेणियों (सत्व, रजस और तमस) के आधार पर प्रिय है; वैसे ही यज्ञ , तपस्या और दान भी हैं; भोजन, यज्ञ, तप और दान में (सत्व आदि गुणों के आधार पर)  जो विभिन्नताएँ हैं, उसे (मुझसे) सुनो।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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